नही सुनाई पड़ रहे इस तरह के कजरी के धुन उतरांव (प्रयागराज)सावन महीना लगभग दस दिन बीत चुका है परंतु समूचे क्षेत्र में कहीं भी न तो झूला दिख रहा है न तो कजरी की धुन सुनने को मिल रही है।आज कल के युवाओं पर पश्चिमी सभ्यता इस कदर हावी हो रहा है मानो कि संस्कृति सभ्यता व लोक कला का गला घोंटा जा रहा हो।गंगापार क्षेत्र के कुछ चर्चित कवियों व कलाकारों से वार्तालाप के दौरान वयोवृद्ध कवि लाल जी देहाती ने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि आज से लगभग दो दशक पूर्व सावन महीने में कजरी प्रतियोगिता का आयोजन हुआ करता था।कवि धार्मिक व ऐतिहासिक कहानियों की रचना करते थे कलाकार उसे वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत किया करते थे।महिलाएं झूला झूलते हुए सामूहिक गीतों को गाया करती थी ।परंतु इन दिनों इन सब चीजों से लोग विरक्त होते जा रहे है जो चिंता का विषय है।युवा कवि धनंजय शास्वत ने कहा कि आज कल के युवाओं में न तो इस तरह के आयोजनों में रुचि रह गई है न ही अब जागरुक करने वाले लोग रह गए है।सरकार को लोक कला के उत्थान के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है नही तो आने वाले समय मे लोक कला महज पन्नो पर इतिहास बनकर रह जायेगा।लोक गायक विकास इलाहाबादी ने उक्त बाबत पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि आज कल के गायक कम समय मे प्रसिद्धि पाने के लिए फूहड़ गीतों को गाना शुरू कर दिए हैं जिसे न तो परिवार के साथ बैठ कर सुना जा सकता है और न ही सामाजिक स्तर पर गाने योग्य है।