लखनऊ।

सामाजिक तौर पर महिलाओं को त्याग, सहनशीलता एवं शर्मीलेपन का प्रतिरूप बताया गया है। मां की कोख से लेकर अर्थी की सैया तक विभिन्न चरणों में अन्याय अत्याचार का बोझ उठाती महिलाएं, इसके भार से दबी महिलाएं चाहते हुए भी अपने अधिकारों के लिए बने क़ानूनों का उपयोग नहीं कर पातीं।

          सदियों से सामाजिक ताना-बाना इतना मजबूत बना गया है कि बहुत सारे मामलों में महिलाओं को पता ही नहीं होता कि उनके साथ जो घटनाएं हो रही हैं वह उसके लिए बनी नहीं है उनका शोषण हो रहा है। उनके साथ होने वाले सभी प्रकार के अत्याचार और अन्याय उससे बचाव का कोई क़ानून भी है।

         आज समानता की बात करते सामाजिक परिवेश में अक्सर शारीरिक प्रताड़ना यानी मारपीट, जान से मारना आदि को ही हिंसा माना जाता है और इसके लिए रिपोर्ट भी दर्ज कराई जाती है। लेकिन महिलाओं और लड़कियों को यह नहीं पता कि मनपसंद कपड़े न पहनने देना, मनपसंद नौकरी या काम न करने देना, अपनी पसंद से खाना न खाने देना, बालिग़ व्यक्ति को अपनी पसंद से विवाह न करने देना या ताने देना, मनहूस आदि कहना, शक करना, मायके न जाने देना, किसी खास व्यक्ति से मिलने पर रोक लगाना, पढ़ने न देना, काम छोड़ने का दबाव डालना, कहीं आने-जाने पर रोक लगाना जबरन कई बच्चे पैदा करने का दबाव डालना आदि भी हिंसा है, मानसिक प्रताड़ना है।

       अर्थ के इस युग में आज जरूरी है हक और अधिकार के प्रति जागरूक होना अन्याय और शोषण किसे कहते हैं यह समझना यह जरूरी है मोटी मोटी बेटियों को तोड़ दिया जाए जो हर बात का जिम्मेदार महिला को भी बनाना चाहते हैं वह बंधन जो थाने में जाकर शिकायत करने किसी एनजीओ से मिलकर संघर्ष करने कोर्ट कचहरी में जाने को बेज्जती और घर की इज्जत नीलाम होने से जोड़ते हैं।


 यह बात माना कि यह बात अब पुरानी हो गई कि महिलाओं को अपने दहलीज से बाहर पैर नही रखने हैघर में मार पीट गाली गलौच सहना ही होगा वरना बदनामी होगी।

            घरेलू हिंसा अधिनियम के बारे में भी आज ज्यादातर महिलाएं अनभिज्ञ हैं ।घरेलू हिंसा अधिनियम का निर्माण 2005 में किया गया और 26 अक्टूबर, 2006 से इसे लागू किया गया. यह अधिनियम महिला बाल विकास द्वारा ही संचालित किया जाता है. यह क़ानून ऐसी महिलाओं के लिए है, जो कुटुंब के भीतर होने वाली किसी क़िस्म की हिंसा से पी़डित हैं. इसमें अपशब्द कहने, किसी प्रकार की रोक-टोक करने और मारपीट करना आदि शामिल हैं. इस अधिनियम के अंतर्गत महिलाओं के हर रूप मां, भाभी, बहन, पत्नी एवं किशोरियों से संबंधित प्रकरणों को शामिल किया जाता है. घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत प्रताडित महिला किसी भी व्यस्क पुरुष को अभियोजित कर सकती है अर्थात उसके विरुद्ध प्रकरण दर्ज करा सकती है. भारतीय दंड संहिता की धारा 498 के तहत ससुराल पक्ष के लोगों द्वारा की गई क्रूरता, जिसके अंतर्गत मारपीट से लेकर क़ैद में रखना, खाना न देना एवं दहेज के लिए प्रताड़ित करना आदि आता है. घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत अपराधियों को 3 वर्ष तक की सज़ा दी जा सकती है, पर शारीरिक प्रताड़ना की तुलना में महिलाओं के साथ मानसिक प्रताड़ना के मामले ज़्यादा होते हैं. यहां हम कुछ ऐसे अपराध और क़ानूनी धाराओं का ज़िक्र कर रहे हैं, जिनकी जानकारी रहने पर महिलाएं अपने खिला़फ होने वाले अत्याचारों के खिला़फ आवाज़ उठा सकती हैं.


साथ ही अपहरण, भगाना या महिला को शादी के लिए मजबूर करने जैसे अपराध के लिए अभियुक्त के खिला़फ धारा-366 लगाई जाती है, जिसमें 10 वर्ष तक की सज़ा का प्रावधान है। 

 


       आधुनिक समाज में आर्थिक स्वावलंब तो बढ़ा है मैं कारी करने वाली महिलाएं और पुरुष भावनात्मक और मानसिक रुप से एक दूसरे के करीब आते हैं और एक नई समस्या कजन होता है वह है अफेयर या एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर .... घर बनाने और घर टूटने की प्रक्रिया कई किसी के घर बनने तो किसी के टूटने का मासिक प्रताड़ना का चक्र। जानकारी होनी चाहिए की पहली पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह करना धारा-494 के तहत जघन्य जुर्म है और अभियुक्त को 7 वर्ष की सज़ा मिल सकती है। पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता बरतने पर धारा-498 के तहत 3 साल की सज़ा दी जा सकती है। अगर कोई व्यक्ति या रिश्तेदार किसी महिला का अपमान करता है और उस पर झूठे आरोप लगाता है तो उसे धारा-499 के तहत दो साल की सज़ा का भागी बनना पड़ सकता है।

          एक ओर जहां गर्भ में बेटियों के सरंक्षण हेतुलिंग चयन निषेध कानून1994 कानूनी मदद देता है जेल तथा धारा 313–314का संरक्षण है। महिला की सहमति के बग़ैर गर्भपात कराना भी उतना ही बड़ा अपराध है, जिसके लिए अभियुक्त को धारा-313 के तहत आजीवन कारावास या 10 वर्ष क़ैद और जुर्माने की कड़ी सज़ा का प्रावधान है।

      वहीं शादी के बाद दहेज मांगना और उसके लिए प्रताड़ित करना बेहद जघन्य है, जिसके लिए भारतीय क़ानून में आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान है, जो धारा-304 

के तहत सुनाई जाती है। दहेज मृत्य के लिए भी अभियुक्त पर धारा-304 ही लगाई जाती है. किसी लड़की या महिला पर आत्महत्या के लिए दबाव बनाना भी संगीन अपराध की श्रेणी में आता है, जिसके लिए धारा-306 के तहत 10 वर्ष की सज़ा मिलती है।

            सार्वजनिक स्थान पर अश्लील कार्य एवं अश्लील गीत गाने के लिए धारा-294 और 3 माह क़ैद या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।

             महिला की शालीनता भंग करने की मंशा से की गई अश्लील हरकत के लिए धारा-354 और 2 वर्ष की सज़ा, महिला के साथ अश्लील हरकत करना या अपशब्द कहने पर धारा-509 और 1 वर्ष की सज़ा, बलात्कार के लिए धारा-376 लगाई जाती है और 10 वर्ष तक की सज़ा या उम्रक़ैद मिलती है।

           


सरकार ने महिलाओं को पुरुषों के अत्याचार, हिंसा और अन्याय से बचाने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन तो किया, पर वह अपने मक़सद में ज़्यादा सफल नहीं हो पा रहा है आयोग के पद पर आधिकांश महिलाएं है और सुविधाये तो है पर न्याय कम।यह ठीक है कि आयोग में शिकायत दर्ज कराने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि आयोग में शिकायत लेकर पहुंचने वाली महिलाओं में अधिकांश संख्या उनकी है, जो न केवल पढ़ी-लिखी हैं, बल्कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ अपने अधिकारों को पहचानती भी हैं वह भी आयोग का चक्कर लगाने से डरती है तो गांवों की अनपढ़, कम पढ़ी-लिखी और दबी-कुचली महिलाओं की आवाज़ इस आयोग में नहीं सुनी जाती। लगभग लगभग 2 वर्ष पहले मैंने भी एक शिकायत डाल द्वारा भेजी थी इसकी आज तक ना सुनवाई हुई और ना ही किसी ने पूछा कि शिकायतकर्ता कौन है और क्या शिकायत वाजिब है। महिला आयोग को वहां तक पहुंचने वाली शिकायतों के प्रति गंभीर होना चाहिए ताकि हालात और परिस्थितियों की मारी महिलाओं को मदद मिल सके।


           आज जरूरत है महिलाओं को शिक्षा, चिकित्सा और कानूनी सलाह मुफ्त में मिलने की ताकि कोई भी महिला आधुनिक युग में शोषण का शिकार ना हो सके। विषय जब देश की आधी आबादी की गरिमा से संबद्ध हो तो मामला और भी विचारणीय हो जाता है। माना महिलाओं की मदद के लिए कभी 1090 तो कभी 118 हो या7827170170 सिर्फ खाना पूर्ति है या हकीकत में मुसीबत के समय महिलाओं के साथ खड़े भी होते हैं यह आप भी जानते हैं और हम भी।

            आज जरूरत है कि महिलाओं से संबंधित इन प्रकरणों के बेशुमार मामलों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन करे। पिंक बूथ तो बहुत बनाए गए पर अक्सर उन में ताले ही लगे दिखते है। काश इसमें संजीदगी से महिलाओं की सुनवाई हो सकती।

        सबसे खास और अहम बात कि खुद महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों अपने गरिमा की रक्षा और स्वाभिमान को बनाए रखने की जंग में खुद ही कमर कस कर आ गए हैं निश्चित रूप से छोटी-छोटी बातों पर विवाद करना भी गलत है पर किसी गंभीर बात पर खामोश रहना भी गलत है।

 

इतने कानून होने के बावजूद हमें अक्सर महिला संबंधी अपराधों से भरे हुए पेपर हर सुबह ही पढ़ने को मिलते हैं। काश यह सिलसिला रोका जा सकता ।

 विचार करें।


@रीना त्रिपाठी

महामंत्री भारतीय नागरिक परिषद